आत्मा, परमात्मा या ब्रह्म का साक्षात् अपरोक्ष ज्ञान ही 'अपरोक्षानुभूति' है|
इस ग्रन्थ में इसी अवस्था को प्राप्त करने की विधि और उसमे सतत् स्थिर रहने का विधान बताया गया है|
अपरोक्षानुभूति की अवस्था तक पहुँचने के लिए भागवद्पाद ने इस ग्रन्थ में कुछ बातों पर विशेष बल दिया है| सबसे प्रथम उन्होंने विचार करने की आवश्यकता बताई है और यह भी बताया है कि विचार कैसे किया जाये| यह जगत किस प्रकार उत्पन्न हुआ, इसका करता कौन है तथा इसका उत्पादन कारण क्या है?
अन्त में निधिध्यासन के पन्द्रह अंग इस ग्रन्थ की मुख्य विशेषता है| उनके अंतर्गत यम, नियम, त्याग, मौन, देश, काल, आसन, मूलबन्ध, देहसाम्य, नेत्रों की स्तिथि, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि आते हैं| इनमें से अधिकांश पतंजलि योग के ही अंग है किन्तु शंकराचार्य ने उनकी व्याख्या अपने ढंग से की है| उसमें अद्वैत वेदान्त की दृष्टी स्पष्ट दिखाई देती है|
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आत्मा, परमात्मा या ब्रह्म का साक्षात् अपरोक्ष ज्ञान ही 'अपरोक्षानुभूति' है|
इस ग्रन्थ में इसी अवस्था को प्राप्त करने की विधि और उसमे सतत् स्थिर रहने का विधान बताया गया है|
अपरोक्षानुभूति की अवस्था तक पहुँचने के लिए भागवद्पाद ने इस ग्रन्थ में कुछ बातों पर विशेष बल दिया है| सबसे प्रथम उन्होंने विचार करने की आवश्यकता बताई है और यह भी बताया है कि विचार कैसे किया जाये| यह जगत किस प्रकार उत्पन्न हुआ, इसका करता कौन है तथा इसका उत्पादन कारण क्या है?
अन्त में निधिध्यासन के पन्द्रह अंग इस ग्रन्थ की मुख्य विशेषता है| उनके अंतर्गत यम, नियम, त्याग, मौन, देश, काल, आसन, मूलबन्ध, देहसाम्य, नेत्रों की स्तिथि, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि आते हैं| इनमें से अधिकांश पतंजलि योग के ही अंग है किन्तु शंकराचार्य ने उनकी व्याख्या अपने ढंग से की है| उसमें अद्वैत वेदान्त की दृष्टी स्पष्ट दिखाई देती है|